भूमिका-तीन अक्षर के नाम ‘परीक्षा’ को सुनते ही सभी को अपनी नानी याद आ जाती है तथा इस नाम को सुनते ही बड़े-बड़े भयभीत हो जाते हैं। परीक्षा के आतंक को केवल वही जान सकता है जिसने कभी परीक्षा दी हो या जिसे परीक्षा देनी है। विद्यार्थियों के लिए तो यह नाम भूत के समान है जो उन्हें सदैव आतंकित करता रहता है। कहते हैं कि परीक्षा के बिना व्यक्ति की योग्यता की जाँच नहीं हो सकती तथा वह जीवन में उन्नति नहीं कर सकता, अतः आज कदम-कदम पर परीक्षाओं का सामना करना ही पड़ता है।

परीक्षा: जीवन की कसौटी सोने को कसौटी पर परखा जाता है तथा उसे शुद्ध करने के लिए अगि में तपाया जाता है, वैसे ही विद्यार्थियों की योग्यता की कसौटी भी ‘परीक्षा’ है। यदि जीवन में परीक्षा न हो तो विद्यार्थी के गुण-दोष का मूल्यांकन किस प्रकार हो पाएगा, अतः परीक्षा अनिवार्य है। जब कोई वस्तु अनिवार्य है, तो फिर उससे भयभीत होना कैसा? फिर तो डटकर उसका सामना करना चाहिए।
परीक्षा के दिन-परीक्षा के दिन भी क्या दिन है! न खाने की चिंता, न नींद की परवाह, न टी०वी० का आकर्षण, न खेल-कूद का समय। बस दिन-रात किताबों में खो जाइए, खूब रहे लगाइए और परीक्षा की तैयारी कीजिए। परीक्षा के दिनों में एक अजीब-सा मानसिक तनाव तथा भय विद्यार्थियों को भयभीत करता रहता था तथा इसका अंत तभी होता है जब परीक्षा समाप्त होती है।
परीक्षा की आवश्यकता-सोचकर देखें कि यदि जीवन में परीक्षा न हो, तो विद्यार्थी जीवन कैसा होगा ? परीक्षाओं के अभाव में विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए कौन प्रेरित करेगा, कौन उनमें स्पर्द्धा की भावना भरकर जीवन में कुछ बनने के लिए इच्छा शक्ति जाग्रत करेगा ? परीक्षा के अभाव में न तो किसी प्रकार की प्रतियोगिता की दौड़ होगी तथा न ही नियमित अध्ययन। उल्टे विद्यार्थी आलसी बन जाएँगे तथा अपने अमूल्य समय को व्यर्थ की बातों में बरबाद कर देंगे। परीक्षा के कारण ही वे अपनी योग्यता का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। परीक्षा के न होने पर क्या ऐसा संभव हो सकेगा ? कदापि नहीं।
आज की परीक्षा प्रणाली-अब ज़रा आज की परीक्षा प्रणाली के बारे में भी विचार-विमर्श कर लें। क्या आज की परीक्षा शिक्षा की सही कसौटी है ? क्या यह विद्यार्थी का समग्र तथा सतत मूल्यांकन करने में समर्थ है ? क्या यह उसका सर्वांगीण विकास करती है? क्या परीक्षा में प्राप्त किए गए अंकों को उसकी योग्यता का प्रमाण माना जा सकता है ? – ये सभी विचारणीय प्रश्न हैं। आजकल के विद्यार्थी पूरे वर्ष नहीं पढ़ते तथा परीक्षा के दिनों में रट्टू तोते की तरह चुने हुए प्रश्नों के उत्तर याद करके परीक्षा भवन में नकल करके या अध्यापकों से ट्यूशन लेकर अधिक-से-अधिक अंक पा जाते हैं। आज की परीक्षा प्रणाली रटने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है। तीन घण्टे में उसे अपनी सारी योग्यता का निचोड़ प्रस्तुत करना होता है, जो उचित प्रतीत नहीं होता। इसमें आमूल-चूल परिवर्तन की नितांत आवश्यकता है।
प्राचीन काल की परीक्षा पद्धति कुछ भी हो परीक्षा तो परीक्षा है।
उसका चाहे जो स्वरूप हो, उसका होना नितांत आवश्यक है। प्राचीन काल में गुरुकुलों में गुरु अपने शिष्यों की परीक्षा लिखित रूप में नहीं लिया करते थे अपितु वे उसके चरित्र एवं व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने के लिए उसे भिन्न-भिन्न प्रकार के काम करने को कहते थे तथा उन्हीं के आधार पर वह शिष्य का मूल्यांकन कर लेते थे। द्रोणाचार्य ने अर्जुन की परीक्षा लेते समय इस बात का ध्यान रखा कि उसकी योग्यता तथा एकाग्रचित्तता का पता चल सके। इसी प्रकार की अनेक घटनाएँ हैं जब गुरु अपने शिष्यों की परीक्षा लिया करते थे।
उपसंहार-परीक्षा के दिन उन्हीं छात्रों के लिए मुसीबत सिद्ध होते हैं जो पूरे वर्ष मौज-मस्ती उड़ाते या अपना समय टी०वी० देखकर या खेलकूद में बिताते हैं। ऐसे विद्यार्थियों पर परीक्षा का भूत सवार होना स्वाभाविक है। विषय अधिक होते हैं, समय कम, अतः वे घबरा जाते है, बीमार पड़ जाते हैं या मानसिक संतुलन खो बैठते हैं। केवल ऐसे विद्यार्थी ही परीक्षा को नकल द्वारा पास करने की योजना बनाया करते हैं। जो विद्यार्थी पूरे वर्ष नियमित ढंग से पढ़ाई करता है, परीक्षा के दिनों में उसे किसी प्रकार की कठिनाई उपस्थित नहीं होती। परीक्षा के दिन भी उसे सामान्य दिनों की भाँति लगते हैं। आलसी तथा कामचोर छात्र परीक्षा के दिनों में पूरे घर भर की नींद हराम कर देते हैं तथा प्रायः परीक्षा में असफल होकर अपने माता-पिता के धन तथा अपने जीवन के अमूल्य क्षणों का अपव्यय करते हैं। अतः हमें चाहिए कि हम वर्ष भर नियमित ढंग से अध्ययन करें तथा परीक्षा को एक मुसीबत न समझकर अपनी योग्यता की जाँच का सुनहरा अवसर समझें ।